गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी
नाम तुलसोदास हुआ | इनका जन्म अभुक्त मूल में हुआ था। ज्ञान पड़ता है कि इनके माता पिता इनकी बाल्यावणा में ही स्वगवासो है| गये थे ओर ये दाने दाने का ' बिललाते ' फिरते थे ( देखिए “बारे ते लखात बिललात द्वार द्वार दीन जानत हा चारि फल चारि ही चनक का ” | कवितावली ) कुछ लोग समभते हैं कि' इनके माता पिता ने इन्हें छोड़ दिया था पर यह बात ठीक नहीं । अवश्य ही अपनी कविता में इन्होंने ठार ठार अपना मातु-पितु द्वारा “तजा ” जाना लिखा है पर इससे उनके शीघ्र ही “स्वगवासी ” हाने का तात्यय्य है। कहते हैं कि इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ था जिससे इनके तारक नाम एक पुत्र भी हुआ पर वह बचपन में ही स्वगवासी हुआ। यह भी सुना जाता है कि गोस्वार्माजी अपनी स्त्री पर बड़ा ही प्रेम रखते थे श्रार उसके नेहर जाने पर एक बार वहां जा पहुंचे । इस पर स्त्री ने कहा कि यदि आप इतना प्रेम परम्रेश्वर से करते ते। न जानें क्या फल होता | तब ते तुलसीदासजी की आँखे खुल गई ग्रार व धर छोड़ चल दिये ग्रार वेरागी हो गये । इस कथा का उल्लेख प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में किया है। कहा जाता है कि साधु होने पर एक बार अपनी ख््री से इनका देवात् साक्षात्कार हे गया पर इस अवसर पर जो दोनों में देहावें ढ्वारा बात चीत होना कहा गया है वह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता
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