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मंगलवार, 28 अक्टूबर 2025

मिश्र बंधु के तुलसीदास

 

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी 

नाम तुलसोदास हुआ | इनका जन्म अभुक्त मूल में हुआ था। ज्ञान पड़ता है कि इनके माता पिता इनकी बाल्यावणा में ही स्वगवासो है| गये थे ओर ये दाने दाने का ' बिललाते ' फिरते थे ( देखिए “बारे ते लखात बिललात द्वार द्वार दीन जानत हा चारि फल चारि ही चनक का ” | कवितावली ) कुछ लोग समभते हैं कि' इनके माता पिता ने इन्हें छोड़ दिया था पर यह बात ठीक नहीं । अवश्य ही अपनी कविता में इन्होंने ठार ठार अपना मातु-पितु द्वारा “तजा ” जाना लिखा है पर इससे उनके शीघ्र ही “स्वगवासी ” हाने का तात्यय्य है। कहते हैं कि इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ था जिससे इनके तारक नाम एक पुत्र भी हुआ पर वह बचपन में ही स्वगवासी हुआ। यह भी सुना जाता है कि गोस्वार्माजी अपनी स्त्री पर बड़ा ही प्रेम रखते थे श्रार उसके नेहर जाने पर एक बार वहां जा पहुंचे । इस पर स्त्री ने कहा कि यदि आप इतना प्रेम परम्रेश्वर से करते ते। न जानें क्या फल होता | तब ते तुलसीदासजी की आँखे खुल गई ग्रार व धर छोड़ चल दिये ग्रार वेरागी हो गये । इस कथा का उल्लेख प्रियादासजी ने भक्तमाल की टीका में किया है। कहा जाता है कि साधु होने पर एक बार अपनी ख््री से इनका देवात्‌ साक्षात्कार हे गया पर इस अवसर पर जो दोनों में देहावें ढ्वारा बात चीत होना कहा गया है वह विश्वसनीय नहीं प्रतीत होता

गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी का नर काव्य

 गोस्वामीजी ने कभी नर काव्य न किया ग्रर यदि कभी दे पंक्तियाँ लिख दी ते वे केवल मित्रता वश टाडर नामक एक भाग्यशाली व्यक्ति के विषय में लिखों | फिर भी स्पष्ट है कि टोडर भी रामभक्त था ओर उसके विषयक केवल चार देाहों में भी महात्माजी ने दे बार राम नाम लाकर रखही ते दियाः
-चारि गाँव का ठाकुरो , मन का महा महीप। 
तुलसा या संसार में , अथये टोडर दीप॥ १॥ 
तुलसा राम सनेह का , सिर पर भारी भारु। 
टोडर कांधा ना दिये , सब कहि रहे उतारु ॥ २॥
 तुलसी उर थालढा बिमल , टोडर गुन गन बाग। 
ये देउ नेनन सॉचिहों , समुक्ति समुझे अनुराग ॥ ३॥ 
राम धाम टोडर गये , तुलली भय्रे असोच। 
जियबा मीत पुनीत बिनु , यही जानि संकाच ॥ ४॥


गोस्वामी श्रीतुलसीदासजी १२३

धय टोडर ! तुम्हारे लिए हिन्दी-सूरंय स्वयम्‌ महात्मा तुलसोदासजी ने अपना हृढ़ सिद्धान्त छोड़ नर-काव्य किया || धन्य 

शनिवार, 25 अक्टूबर 2025

डॉ० भगीरथ मिश्र, एम० ए०, पी-एच० डी० अध्यक्ष, हिन्दी विभाग सागर विश्वविद्यालय

 प्रसिद्ध इतिहासकार विसेंट ए० स्मिथ (Vincent A. Smith) ने अपने सुविख्यात ग्रंथ अकबर महान् (Akbar, The Great Moghul) नामक ग्रंथ में लिखा है' कि तुलसीदास अपने युग में भारतवर्ष के सबसे महान् व्यक्ति थे; अकबर से भी बढ़कर, इस बात में कि करोड़ों नर-नारियों के हृदय मौर मन पर प्राप्त की हुई कवि की विजय, सम्राट की एक या समस्त विजयों की अपेक्षा असंख्यगुनी अधिक चिरस्थायी और महत्त्वपूर्ण थी ।

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१. (अ) आनन्दकानने कश्चित् तुलसी जंगमस्तरः । 

कविता मंजरी यस्य रामभ्रमरभूषिता ॥ -मधुसूदन सरस्वती

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१. डॉ० जार्ज ग्रियर्सन ने लिखा है कि आधुनिक काल में तुलसीदास के समान दूसरा ग्रन्थकार नहीं हुआ है।

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तुलसीदास जी पर लिखे गये हिन्दी ग्रन्थों की भी एक लम्बी सूची है जिनमें से प्रमुख १. रामचन्द्र शुक्ल कृत, तुलसीदास, २. श्यामसुन्दर दास और पीता- म्बर दत्त बड़थ्वाल कृत, गोस्वामी तुलसीदास, ३. बलदेव प्रसाद मिश्र कृत, तुलसी दर्शन, ४. रामनरेश त्रिपाठी कृत, तुलसीदास और उनकी कविता, ५. माताप्रसाद गुप्त कृत, तुलसीदास, ६. चन्द्रबली पांडेय कृत, तुलसीदास, ७. व्यौहार राजेन्द्रसिंह कृत, गोस्वामी तुलसीदास की समन्वय-साधना,

८.रामबहोरी शुक्ल कृत, तुलसीदास १. कामिल बुल्के कृत, रामकथा: उद्भव और विकास, १०. परशुराम चतुर्वेदी कृत मानस की रामकथा तथा ११. राजपति दीक्षित कृत, तुलसीदास और उनका युग हैं। इन समस्त ग्रन्थों की अपनी- अपनी विशेषताएँ हैं। जीवन वृत्त के सम्बन्ध में विशेष सामग्री देने वाली कृति माताप्रसाद गुप्त कृत, तुलसीनास है और इस सम्बन्ध में विशेष दृष्टिकोण प्रदान करने वाले ग्रन्थ रामनरेश त्रिपाठी कृत, तुलसीदास और उनकी कविता तथा चन्द्रबली पांडेय और रामबहोरी शुक्ल के ग्रन्थ हैं। माताप्रसाद गुप्त ने समस्त सामग्री को सामने रख कर कोई निर्णय नहीं दिया, त्रिपाठीजी का आग्रह सोरों में तुलसी की जन्मभूमि के प्रति तथा रामबहोरीजी का राजापुर और चन्द्रबलीजी का अयोध्या के लिए है। बलदेवप्रसाद मिश्र का तुलसीदर्शनगोस्वामीजी के दार्शनिक मत का स्पष्टीकरण करने वाला ग्रन्थ है और समन्वयसाधना में तुलसीदास के समन्वयात्मक दृष्टिकोण को प्रकट किया गया है । कामिल बुल्के के ग्रन्थ में रामकथा के स्वरूप और विस्तार का अध्ययन हुआ है और इस प्रसंग में बलदेवप्रसाद मिश्र की 'मानस में रामकथा' और परशुराम चतुर्वेदी की 'मानस की रामकथा' पुस्तकें उल्लेखनीय हैं। काव्य की दृष्टि से रामचन्द्र शुक्ल की कृति, रामनरेश त्रिपाठी और चन्द्रबली पांडेय के ग्रन्थ अपनी-अपनी विशेषताओं से युक्त हैं, पर शुक्लजी के ग्रन्थ के समान मार्मिकविश्लेषण अभी और अधिक होने की आवश्यकता है। राजपति दीक्षित ने समकालीन परिस्थितियों और धार्मिक भावना का विशेष रूप से अध्ययन किया है। अतः इन ग्रन्थों में अपने-अपने दृष्टिकोण से एक या अनेक पक्षों का उ‌द्घाटन हुआ है ।

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१. सुरतिय नरतिय नागतिय, सब चाहत अस होय । गोद लिये हुलसी फिरैं, तुलसी सो सुत होय 

भक्तमाल इनमें नाभादास का भक्तमाल सबसे अधिक प्रामाणिक है। इसमें तुलसीदास जी को भक्तमाल का सुमेरु कहा गया है । परन्तु, इस ग्रन्थ के अन्तर्गत तुलसी के सम्बन्ध में केवल एक छप्पय मिलता है, जो इस प्रकार है:- त्रता काव्य निबन्ध करी सत कोटि रमायन । इक अच्छर उच्चरे ब्रह्म हत्यादि परायन ।। अब भक्तन सुखदेन बहुरि लीला विस्तारी । राम चरन रस मत्त रहत अहनिसि व्रतधारी । ससार अपार के पार को सुगम रीति नौका लयो । कलि कुटिल जीव निस्तार हित बालमीकि तुलसी भयो । इसी प्रकार 'भविष्य पुराण' में भी उल्लेख है। ना दास के छप्पय में गोस्वामीजी के महत्व का वर्णन है। उनकी अटूट राम-भक्ति और बाल्मीकि के अवतार होने का कथन है, पर उनके जीवन-चरित्र के सम्बद्ध में कोई उल्लेख नहीं । प्रियादास के भक्तमाल की टीका सं० १६६६ में लिखी गयी थी। इसमें गोस्वामी जी के अलौकिक कृत्यों का ११ छन्दों में वर्णन है। इसमें तुलसी के द्वारा किये गये चमत्कारों के संकेत हैं, जैसे वाटिका में हनुमर्शन, ब्रह्महत्या- निवारण, दिल्लीपति बादशाह जहाँगीर से संघर्ष आदि । ये तत्कालीन किंव दन्तियों का रूप स्पष्ट करते हैं। यह टीका जनश्रुति का लिखित रूप है, पर यह जनश्रुति बहुत पुरानी होने से तुलसीदास के माहात्म्य को स्पष्ट करती है। एफ एस० ग्राउज़ ने अपने रामचरित मानस के अंग्रजी अनुवाद की भूमिका में इसके तथा वेणीमाधवदास के गोसाई चरित के आधार पर तुलसीदास की जीवनी दी है। अलौकिक कृत्यों का ही विवरण होने से हम इसे ऐतिहासिक महत्त्व नहीं प्रदान कर सकते ।

मृत्यु-तिथि मृत्यु का सं० १६८० तो सभी को मान्य है। परन्तु कुछ लोग, सावन शुक्ला सप्तमी निधन तिथि मानते हैं, जो भ्रमवश दूसरे दोहे के प्रसङ्ग से लगा लिया जाता है। काशी के जमींदार और गोसाई जी के मित्र टोडर के उत्तरा- धिकारी सावन कृष्ण ३ को निधन तिथि मानते हैं और इसी दिन सीधा आदि देते हैं। यही तिथि 'मूल गोसई चरित' के इस दोहे में प्रकट है:- संवत सोलह से असी, असी गंग के तीर । सावन स्यामा तीज सनि, तुलसी तजे शरीर । यह तिथि गणना से भी सही उतरती है । अतः सर्वमान्य है । यह है तुलसी के लौकिक जीवन का विवरण ।

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बबुर बहेरे को बनाय बाग लाइयत, रुधिवे को सोई सुरतरु काटियत है।
 गारी देत नीच हरिचंदहू दधीचिह्न को, आपने चना चबाय हाथ चाटियत है
 आप महापातकी हँसत हरि हर हू को, आपु है अभागी भूरिभागी डांटियत है ।
 कलि को कलुष मन मलिन किये कहत, मसक की पाँसुरी पयोधि पाटियत हैं। 

शुक्रवार, 24 अक्टूबर 2025

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bagheli shab kosh ---PADMSHRI BABU LAL DAHIYA JI KRIT

बघेली शब्दकोश
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बाबूलाल दाहिया
मित्रों! जैसा कि कल ही हमने बताया था कि आज से हम अपना बघेली शब्दों का शब्द कोश चालू करेंगे तो आज से शुरू कर दिया है। सब से पहले शब्दों के संकेत दिए गए हैं कि वह संज्ञा, सर्वनाम, विशेषण आदि क्या है? और बाद में बघेली के 25 शब्द तथा उनका हिन्दी में अर्थ भी।
०_संज्ञा - (सं.)
०_ सर्वनाम - (सर्व.)
०_क्रिया - (क्रि.)
०_ विशेषण - (वि.)
०_ क्रिया विशेषण - (क्रि.वि.)
०_सहायक क्रिया - (स.क्रि.)
०_पुलिंग - (पुं.)
०_ स्त्रीलिंग - (स्त्री.)
०_बघेली मुहावरा - (ब.मु.)
बघेली शब्द कोश
(अ)
०_अइकब - (क्रि.वि.) पेट भर खा चुक ना।
०_अइंचड़़- (वि.) मजबूूत, साहसी।
०_अइंचड़ई - (क्रि.वि.) साहस पूर्ण कार्य
दिखाना।
०_अइंचब - (क्रि.) निकालना,खींचना।
०_अइंचातानी - (क्रि.) अपनी-अपनी
तरफ खींचना / खीचातानी/
काम में व्यवधान डालना।
०_अइंछब - (क्रि.) बालों में कंघाकरना/
जुएँ निकालना।
०_अइंछा -(क्रि.वि.) अग्रिम दी गई राशि /
बिना हिसाब किये दिया
गया अनाज या रुपया।
०_अइंठ - (क्रि.) ऐंठ, स्वाभिमान।
०_अइंठब - (क्रि.) रस्सी बरना, मरोड़ना।
०_अइंठा - (वि.) लपेटा हुआ।
०_ अइंठी ( वि ) बरी हुई रस्सी/ एक
औषधि मरोड़ फली।
०_अइंड़ाब - (क्रि.) जमुहाई लेना /
अकड़ना।
० _अइढ़ब - (क्रि.) अकड़ कर रह
जाना, अकड़ना।
०_अइताब - (क्रि.) कम हो जाना,
बिरल होना ।
०_अइन - (वि.) सघन /घना
०_अइन -अइन -(वि.) अच्छा-अच्छा /
विरल_ विरल।
०_अइना - (पु. सं.) आइना दर्पण ।
०_अइनान - (क्रि.वि.) सघन होना, खेत
में अच्छी फसल का उगना ।
०_अइबी - (वि.) दुष्ट, बुरी आदतों
वाला /दुर्गुणी ।
०_अइरहा - (वि.) जिसका कोई
वारिशदार न हो, लावारिश।
०_अइरही - (वि.) स्वतंत्र विचरण करने
वाली जिसका को वारिशदार
न हो ।
०_अइरा - (वि.) स्वतंत्र/बिना ताक
राख के ।
०_अइराउब -(क्रि.) अलग करना।
०_अइरान - (क्रि.वि.) स्वतंत्रता पूर्वक
विचरण करना।
०_अइरा-पइरा -(वि.) मूल्यहीन।

__+__ 

( दूसरी किश्त)
०_ बाबूलाल दहिया
मित्रों! यह आप के अवलोकनार्थ बघेली शब्द कोश की दूसरी किश्त प्रस्तुत है। हमारे कई साथियों ने बघेली को अपनी टिप्पणियों में( रिमही ) कहा है। निश्चय ही पुराने रीमा राज्य की बोली रिमही ही थी। पर बाद में अंग्रेजों ने रीमा के साथ अन्य कई राज्यों की मिला कर एक एजेंसी बना दी थी जिसमें नागौद, जसो, सोहावल, कोठी, बरोधा, चौबेपुर रजोरा आदि राज्य भी शामिल थे।
बघेली का आशय यहां सात आठ राज्यों की एक एजेंसी की बोली से है। और रिमही का आशय मात्र पुरानी रीमा राज्य की बोली से। क्योंकि उन राज्यों की आंचलिक बोली रीमा से भिन्न थी। परंतु आप तो शब्द कोश का अवलोकन करें।
०_ अइरापत _( वि.) स्वतंत्र घूमना/
निरुद्देश विचरण।
०_अइरारित - (वि.)
वह ऋतु जब फसल कट जाती
है और जानवर स्वतंत्र चरने के
लिए छोड़ दिये जाते हैं। ( वैषाख
से असाढ़ तक का समय)
०_अइरी-मइरी -(क्रि.) काम चोरी/ काम
में जी चुराना ।
०_अइरै के - (वि.) झूठा अभियोग,
अनावश्यक अभियोग।
०_अइल - (सं.स्त्री.) एक कटीली
झाड़ी।
०_अइलान - (वि.) झुलसा हुआ/
मुरझाया हुआ
०_अइलाब - (क्रि.) मुरझा रहा, तेज
धूप से झुलस रहा पौधा।
०_अइसन - (वि.) इसी प्रकार। इस प्रकार
०_अइसा - (वि.) इस प्रकार।
०_अइसै - (वि.) इस प्रकार।
०_अइहा - (क्रि.) आओगे।
०_अइंहीं - (क्रि.) आयेंगे।
०_अइहे - (क्रि.) आयेगा/आओगे ।
०_अई - (क्रि.) आइये।
०_अउ - (वि.) और
०_अउख - (क्रि.) फॅसाव, पकड़,
गिरफ्त में आ जाना।
०_अउख पउख - (क्रि.) बार_ बार
फॅस जाना।
०_अउखब - (क्रि.)सरफूंदी लगाना,
रस्सी को खूटे में फंसाना।
०_अउखर - (क्रि. वि.) कटु शब्द, लगने
वाली बात।
०_अउखा - (सं. पु.) फन्दा।
०_अउगल - (वि.) अच्छी तरह/बहुत
मात्र में ।
०_अउंगब - (क्रि.) हड़प लेना,
अतिक्रमण कर लेना।
०_अउंगी - (सं.स्त्री.)अधिकार में
लीगई।
०_अउघट - (वि.) दुर्गम रास्ता,
अप्रचलित मार्ग। दुर्गम
स्थान।
०_अउंघाई -(क्रि.) नींद का आना।
( तिसरी किश्त)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! यह बघेली शब्द कोश की तीसरी किश्त है जो आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। पर इसमें बघेली शब्दों की एक स्थान में बारीकी तो देखिए कि जब तक (अउंजी ) में एक छोटी सी ( .) थी तब तक वह घड़े से पानी निकालने का द्योतक था।
परन्तु वही शब्द मात्र ऊपर की विंदु हटा देने से (अउजी) बन गया और उसका अर्थ बोध भी बाद में ( उसके बदले में) कराने लगा। इतना ही नही क्रिया से बदल कर तब वह विशेषण भी बन गया।
तो यह है हमारे बघेली के शब्दों की ताकत।
०_अउंघात अस- (क्रि.वि.) सुस्त / काम
करने में आलसी।
०_अउचट - (सर्व.) कटु शब्द, दुसाहस।
०_अउचटई (क्रि.वि.) दुसाहस पना।
कठिन कार्य को करना।
०_अउंजव - (क्रि.) घड़े से पानी
निकालना।
०_अउजार - (सं.पु.) औजार, उपकरण।
०_अउजी - (वि.) बदले में।
०_अउंजी - (क्रि.) पानी निकलिए?
०_अउझड़ी - (वि.) किसी कि बात न
मान कर मनमानी करने वाला /
बात_ बात में क्रोधित होकर
अनाप सनाप बकने वाला।
०_अउझेड़ - (वि.) कटीली झाडि़यों के
बीच का स्थान।
०_अउटव - (क्रि.) दूध को आग में पका
कर मलाई निकालना।
०_अउंटा - (सं.पु.) द्वार के अगल
बगल बने चबूतरे।
०_अउटा - (वि.) खूब पकाया हुआ दूध।
०_अउटी - (क्रि. ) दूध से मलाई
निकालने की क्रिया।
०_अउंटी - (सं.स्त्री.) दूध पानी हल्दी
और गुड़ डाल कर बनाया जाने
वाला एक पेय / द्वार के अगल
बगल की छोटी चबूतरी ।
०_अउंठा - (सं.पु.) अँगूठा
०_अउंठी - (स.पु.) हाथ या पाव की
छोटी_ छोटी अंगुलियां
०_अउंठी देव - (क्रि.) अँगूठे से दाब कर
काम करने की क्रिया ।
०_ अउंठी के बल _ ( क्रि .वि.) अंगूठे के
इशारे पर काम का होना।
०_अउठेरी - (क्रि.) शैतानी/
नटखटपना।
०_अउढ़्यारब -(क्रि.) रस्सी को अरझा
लेना, लपेट लेना।
०_अउतार - (सं.पु.) औतार ।
०_अउती जाती (क्रि.वि.) आते जाते
समय।
०_अउंध - (वि.) उल्टा रखा हुआ ।
०_अउंधा - (वि.) उलटा रखा गया /
खपड़े को उलटा रख कर घर की
छबाई करना/ नीचे की ओर सिर
करके चलने वाला ।
०_अउंधाउब - (क्रि.) उलट कर रखना।
०_ अउंधान_ ( वि) औधा रखा हुआ।
__+__
बघेली शब्द कोश
(चौथी किश्त)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! अभी तक आप बघेली शब्द कोश के तीन किस्तों की शब्द संपदा देख चुके हैं। कल एक शब्द आया था (अउठेरी) इस शब्द का स्मरण आते ही बघेली के एक पुरोधा कवि स्व. श्री कालिका त्रिपाठी जी याद आगए। दर असल 1983_ 84 के समय जब मैं शब्द कोष में दिन रात व्यस्त रहता था तब वे हमारे क्षेत्र में ही नायब तहसीलदार हुआ करते थे।
जब कभी वे नागौद से उचेहरा को जाते तो अक्सर भेंट हो जाती। फिर तो कभी_ कभी घंटो दरबार होता और शब्द कोश की प्रगति भी पूछ लेते। एक दिन जब मेरी शब्द कोश की डायरी में (अउठेरी ) शब्द और अर्थ में शैतान बालक देखा तो पूछ बैठे कि "शैतान बालक के बघेली में और कितने समानार्थी होते हैं? " मैनें कहा_
( टंटपाली, टपकी, उधुमधारी) यह मैं जानता हूं । हो सकता है और कुछ मिले? उनने कहा "आज कल सरकारी हिन्दी में जो मानक शब्द आरहे हैं यह बढ़े घातक हैं? यह पर्याय वाची शब्दों को ही डकार रहे हैं।
एक शैतान बालक बघेली के इन चार नामों (टंटपाली, टपकी, अउठेरी, उधुम धारी) सभी को डकार जाएगा। इसलिए इन मानक शब्दो से भी हमें बच कर रहना है।" श्री त्रिपाठी पहले तहसीलदार, फिर डिप्टी कलेक्टर और अपर कलेक्टर के पश्चात रिटायर हो आज हमारे बीच नहीं हैं। पर (अउठेरी ) शब्द ने 40 वर्ष पुरानी उनकी याद ताजा कर दी।
परंतु आप तो शब्द कोश का अवलोकन करें?
०_ अउंधान _ उलटी रखी हुई।
० _अउंधाउब - (क्रि.) उलट कर रखना।
०_ अंउधी _ ( वि.) उल्टी रखी हुई वस्तु/
सिर नीचे कर के चलने वाली।
०_अउन पउन - (वि.) कम नाप जोख में
देना/मनमानी।
०_अउना - (सं. पु.) कुठिला का छेंद।
०_अउब - (क्रि.) आना।
०_अउर - (सर्व.) और।
०_अउरब - (क्रि.) बात की उत्पत्ति,
विचार का आना, सूझना।
०_अउरा-कउरा- (वि.) टुकड़ा _ टुकड़ा
०_अउरी - (सं.स्त्री) समय का
समाप्त हो जाना, देरी।
०_ अउर अउर _ ( वि.) बार_ बार
०_अउलट - (वि.) दूर दराज, नजरों से
दूर।
०_ अउलट रहब (वि.) नजरों से दूर
रहना।
०_अउसर - (सं.पु.) विवाह या कोई
अन्य उत्सव।
०_अउसरहा - (वि.) विवाह करने वाला
परिवार
०_अउंसा - (सं.पु.) हुक्क या टेढा छड़।
०_अउसेर - (वि.) अन्तर ।
०_अउंहड़ - (वि.) अद्भुत।
०_अउहै सउहै (वि.) आमने सामने।
०_अकउठी (क्रि.वि.) फसल काट कर
मांग में अकेले रखी गई।
०_अकठ - (वि.) कठिन
०_ अकठ होब _ ( वी.) कड़ा या कच्चा
होना।
०_अकड़ई - (क्रि.वि.) ताव बाजी,
हिम्मत दिखाना।
०_अकड़ वाजी - (क्रि.वि.) तन जाना/
भड़क उठना
०_अकड़ा - (वि.) तना हुआ
__+__
बघेली शब्द कोश
(5)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों ! यह बघेली शब्द कोश की पांचवी किस्त आवलोकनार्थ प्रस्तुत है। जब मुझे इस शब्द कोश में किए गए कार्य की याद आती हैं तो ऐसा लगता है कि उस अस्सी के दशक में कितनी ऊर्जा शरीर में हुआ करती थी ?
गांव के हर उद्यमी के घरों में जाना और उनके उपकरणों एवं निर्मित एक _एक वस्तुओं के नामों को डायरी में दर्ज करना। यही कारण है कि आज भी कुम्हार के उपकरण पीढ़ी,थापा , चकबा, चकेठी आदि तो याद ही हैं उनके द्वारा निर्मित नाद _डहरी से लेकर दिया _चुकरी तक 30_35 प्रकार के बर्तन भी याद हैं। पर आप तो अब बघेली के शब्दों पर गौर करें _
०_ अंकड़ा _( वि.) गोल से अलग रहने
वाला सुअर।
०_ अकड़ा कुहुड़ _ (क्रि. वि.)ऊधम
बाजी।
०_ अंकड़ी _ ( स्त्री.सं) गेहूं का एक
खरपतवार ।
०_ अकड़ी ( वि.) तनी हुई।
०_अकताई - (वि.) आतुरता।
०_अकतियार - (संर्व.) अधिकार।
०_अकती - (सं.स्त्री.) अक्षय तृतिया
का त्यौहार।
०_अकनइचा - (वि.) दाने राहित मक्का
या ज्वार का भुट्टा ।
०_अकना - (वि.) ज्वार / बाजरा
अथवा मक्का का वह भुट्टा
जिससे दाने निकाल
लिए गए हों।
०_अकरकरा _ (पु . सं ) दांत दर्द
को दूर करने वाली एक
जड़ी बूटी।
०_अकबकिआई - (क्रि.) अकुलाहट के
मारे दम घुटना ।
०_अकबकियाब - (क्रि.) घबराहट
होना।
०_अकबकी - (क्रि.) अकुलाहट ।
०_अकबार - (सं. पु.) बाहों के
घेरे में लेना /गले लगा ना।
०_अक्याल - (सर्व.) किन्तु / परन्तु
०_अक्याला - (वि.) अकेले
०_अक्याला मार- (क्रि.वि.) अकेले ही
सारा काम सम्हालना।
०_अकरखन - (सर्व.) आकर्षण
०_अकरास - (सर्व.) परेशानी /कष्ट/
असुविधा
०_अकलउता - (वि.) अकेला
(पुत्रके लिए)
०_अकलउती - (वि.) अकेली
(पुत्री केलिए)
०_अकल्लौ - (क्रि.वि.) ठंड़ी के दिनों
की बूंदा _ बांदी।
०_अकसमात - (वि.) अचानक।
०_अकसिआई - (क्रि.) परेशानी /
संकोच युक्त कष्ट।
०_अकसेरुवा - (वि.) घर में एक मात्र
सभी का भरण पोषाण करने
वाला/ अकेला ।
__+__
बघेली शब्दकोश
( 6)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों ! यह बघेली शब्द कोश की छठवीं किश्त है जो आप के अवलोकनार्थ प्रस्तुत है। और प्रति दिन की तरह इसमें भी बघेली के अनेक दुर्घट शब्द हैं।
०_ अकही _ (वि.) डाही/ पेटू
०_ अकहुर _ ( वि.)एक अंगी / एक और
झुक जाने से जिसका संतुलन
बिगड़ गया हो।
०_अकाउस - (सं. पु.) अंकुश।
०_अकारथ - (वि.) बेकार / व्यर्थ।
०_अकिल - (सर्व.) बुद्धि।
०_अकिहाय - (वि.) अत्यधिक।
०_अंकुरब - (क्रि) अंकुर निकलना।
०_अकुलाब - (क्रि) मिलने केलिए व्याकुल,
व्यथित होना।
०_अकूत - (वि.) अपरमित/ इतना
अधिक जिसका लेखा न
किया जा सके।
०_अकूबा - (क्रि.) बदनामी / अफवाह।
०_अकोर - (सर्व.) घूंस, उत्कोच ।
०_अकोरन - (क्रि.) बार _ बार के
अनुनय विनय पर राजी होना ।
०_अकोल्हा - (सं. पु.) एक औषधीय
वृक्ष ।
०_अखइनी - (सं.स्त्री.) धान गेहूं की
लांक उलटने के लिए प्रयोग
में लाया जाने वाला लकड़ी का
एक उपकरण।
०_ अकतियार ( वि.) अधिकार।
०_अंख मुंदला - (क्रि.) बच्चों का आंख
मुंदौहल नामक एक खेल ।
०_अखरब - (क्रि.) परेशान होना/ कष्ट
का अनुभव करना।
०_अखरा तोखरी- (क्रि.) बार _ बार
परेशान करना।
०_अंखिया - (स.पु.) गन्ना के पोंर की
आँख जिन्हे अलग
अलग काट कर खेत में
लगाया जाता है।।
०_अंखुआ - (सं. पु.) बीज से निकला हुआ
अंकुर ।
०_अंगउछा - (सं.पु) अगरखा।
०_अंगउछी - सं.स्त्री. तौलिया ।
०_अगउढ़ी - (वि.) अग्रिम ली गई राशि ।
०_अगउंही - (वि.) अग्रिम ली गई राशि
या अनाज।
०_अगड़म बगड़म- (वि.) साधारण
वस्तुएँ / अनाप शनाप।
अगड़ान - ( वि.) थनों में दूध
उतरआना।
०_अगड़ी (अड़गी ) -(सं.स्त्री.) जानवरों
को घुसने से रोकने के लिए द्वार
पर लगे पतले लट्ठे।
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बघेली शब्द कोश
( 7)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! बघेली शब्द कोश की यह सातवी किश्त प्रस्तुत है। इसमें अंतिम में एक शब्द (अटइन) आता है। यानी कि जिसका फल टेढ़ा मेंढ़ा अटढ़ा हुआ हो? कहीं _ कहीं इसी को लोग (मरोड़ फली) भी कहते हैं। क्योंकि इसकी कई कलियां आपस में ही लिपट कर एक टेढ़ा मेढ़ा फल का रूप ग्रहण करती हैं।
हमारे सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने हर वनस्पति ,जंगल पहाड़ों ,नदी, नालों का उनके गुण धर्मो के अनुसार नाम कारण कर रखा है। ऐसा लगता है कि उनके नामकरण से कोई वनस्पति नदी,नाले, पहाड़ वंचित ही नहीं रहे। इसी से मै कहा करता हूं कि शब्दों का जन्म पहले बोलियों में हुआ होगा? भाषा में तो उनका परिष्कृत रूप जाता है।
पर आप तो बघेली शब्दों का अवलोकन करें _
०_अंगता - (वि.) पहले। आगे वाला।
०_अगत्ति (वि.) गई गुजरी हुई वस्तु।
०_अगंता - (वि.) आने वाला ।
०_अगन्ती - (वि.) गई गुजरी ।
०_ अंगधर - (वि.) आगे / आगे आने
वाली फसल।
०_अगनई - (सं.स्त्री.) आँगन
० अंगवारे - (वि.) घर के सामने ।
०_अंगबासे - (वि.) घरके सामने की
ओर।
०_अगम दहार - (वि.)बहुत गहरा कुण्ड।
०_अगमानू - (क्रि.) स्वागत करना।
०_ अगमानू ल्याब (क्रि.) आगे बढ़ कर
स्वागत करना।
०_ अंजनहर - (सं.स्त्री.)आँख आंजने
वाली ।
०_अजनास - (वि.) मूर्ख, आलसी,
कामचोर, बेशहूर ।
०_अजनिहा बजनिहा- (सं. पु.)
बजगीर ,बाजा बजाने वाले।
०_अजरा - (वि.) अप्रमाणित, बिना
हिसाब के दी गई राशि ।
०_अजल्याम - (क्रि.वि.) बर्थ ही दोषा
रोपण। झूठा अभियोग
लगाना।
०_अजस - (सर्व.) अपयस ।
०_अजाती - (वि.) जाति से बहिष्कृत।
०_अजार - (सं.) रोग ।
०_अजिआउर - (वि.) दादी का मायका।
०_ अजीरक _ (वि.) भारी भरकम।
०_अजीरन - (क्रि.) अजीर्ण, कब्ज की
शिकायत ,भोजन न पचना।
०_अंजुरी - (सं.स्त्री.) अंजली /गौने की
एक रस्म ।
०_अजुयै से - (उ.) आज ही से
०_अज्जुुर - (वि.) दुर्लभ वस्तु।
०_अंजोर - (वि.) उजाला ।
०_अटइन - (सं. पु.) मरोड़ फली,एक जंगली पौधा जिसके छाल की रस्सी भी बनाई जाती है ।
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बघेली शब्द कोश
( 13)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! यह बघेली शब्द कोश के 25 शब्दों की तेरहवी श्रंखला है। इसमें अनुआ से अफरब तक के शब्द
अवलोकनार्थ प्रस्तुत हैं।
०_अनुआ - (क्रि.) अभियोग ।
०_अनुहार - (सर्व.) एक जैसा रूप,
स्वरूप ।
०_अनूतर - (क्रि.) अपशब्द।
०_अनेत - (वि.) चरित्रहीनता।
०_अनोई - (वि.) बगैर रस्सी बांधे दुही
जाने वाली गाय ।
०_अनोय - (वि.) ब्यावधान रहित।
०_अनंगे-बनंगे - (वि.) तरह-तरह के
लोग या नंग-धड़ग लोग ।
०_अनंदी - (वि.) आनंद/ खुशहाली ।
०_अनेय - (वि.) बाधा रहित ।
०_अन्न-कुन्न - (क्रि.वि.) अनाज का इधर-
उधर बिखर कर बर्वाद होना।
०_अपकिआव - (क्रि.) धवराहट महसूस
करना, सांस लेने में अड़चन ।
०_अपकीरत - (वि.) बदनामी, अपकीर्ति।
०_अपजस - (सर्व.) अपयस। व्यर्थ
अभियोग।
०_अपदर - (सर्व.) दुभिक्ष, अकाल।
०_अपन तुपन - (वि.) हम आप लोग ।
०_अपनपे - (वि.) अपने आप ।
०_अपनपौ - (वि.) अपनापना ।
०_अपना पचे - (वि.) आप लोग ।
०_अपरस - (सं.) गदेली का चर्मरोग ।
०_अपरोजिक - (क्रि.) काम चोरी की
प्रवृत्ति।
०_अपस्वाहत - (वि.)जो देखने में अच्छा
न लगे,अशोभनीय।
०_अफदा _ (क्रि. ) गले में कफ का
अटक जाना।
०_ अफदियाब _ (क्रि.) बीमार पड़
जाना।
०_ अफरब _ (वि.) भर पेट भोजन कर
चुकना। भोजन की पूर्ण
संतुष्टि।
०_ अन्न क कुन्न _ (क्रि.) इधर उधर
बिखेर कर अन्य को
बर्बाद करना।
०_ अनबइया _ ( वि.) लिबाकर लाने
वाला।
०_ अनबनित _ (वि.) बेडौल , विगड़ा
हुआ।
०_ अनबांइत (क्रि.वि.) लंगड़ा कर
चलने वाला।
०_ अनबन_ (क्रि.) आपस में मेल
मिलाप न होना। खुन्नस।
०_ अनमन _ (वि.) दुखित चेहरा।
०_अनमाधव - (क्रि.) कार्य का आरंभ
करना।
०_अनमाधो - (कि.) कार्य का चालू
रहना।
०_ अनमासब - (क्रि.) नये बर्तन अथवा
नई वस्तु का कार्य में
लाया जाना।
०_अनमासी - (क्रि.वि.) जो पहले से ही
कार्य मेें हो।
०_अनमिल - (वि.) अनमेल, मेल
मिलाप न होना।
०_अनरथ - (वि.) अनर्थ, कोई
आकस्मिक घटना।
०_अनरपन - (वि.क्रि.) अनाड़ीपना ।
०_अनर बरकाउब_( क्रि) झगड़े को
टालना, इधर उधर कट
कर चले जाना।
०_अनरसा - (क्रि.) झगड़ा रोपना।
०_अनरीत - (वि.) नीति विरुध्द कार्य ।
०_अनस्वाहत - (वि.) देखने में अच्छी न
लगने वाली वस्तु /अशोभनीय ।
०_अनहट - (वि.) अप्रिय घटना ।
०_अनहोनी - (वि.) अप्रत्यासित घटना।
०_अनारौ - (क्रि.) अन्याय युक्त कार्य,
झगड़ा उत्पन्न करना।
०_अन्निआव - (क्रि.वि.) अन्याय,
पक्षपात पूर्ण कार्य।
०_अनिआब - (क्रि.) अन्दर प्रवेश करना।
०_अनियत - (वि.) बुरी नियति बाला।
०_अनियार - (वि.) होशियार ।
०_ अनी _ ( वि.) बुरे समय में।
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०_ अथउब _ (क्रि.) सूर्य का डूबना।
०_ अथाह_ (वि.) असीमित भरा हुआ
पानी । गहरा जल
भराव।
०_अदरउटा (सर्व) आदर का होना।
०_ अदराब _(क्रि.) टाल मटोल करना।
०_ अदहरा ( स.) रोटी पकाने के लिए
जलाई गई कंडे की आग।
०_ अध कपारी_ (वि.) आधा शीशी सिर
का दर्द।
०_ अधजरा_ (वि.) अधजला।
०_अधरंगा _ (वि.) गुलबाघ ।
०_ अंधर झटका ( क्रि.) अंदाज में किया
गया काम।
०_अध बइकल _ (वि.) अर्ध विक्षिप्त।
०_अधबाई _ (वि.) घर के छप्पर में इस
छोर से उस छोर तक लगने
वाली बल्ली।
०_ अध बिलोंन_ (वि.) आधा अधूरा काम
का होना।
०_ अधमरा _(वि.) घायल अवस्था में।
०_ अधरजी _( वि.) जो साथ_ साथ युद्ध
करने या युद्ध में मदद के
कारण आधा राज्य पाने
के अधिकारी हों।
०_ अधरउटा _ (वि.) अल्प वायस्क।
०_ अधाउट _ (वि.) दोहनी में पक कर
आधा रह गया दूध।
०_ अधियां _ (वि.) आधे उपज के शर्त
पर बटाई में दिया गया खेत।
०_ अधियां तिहरा_ (वि.) आधा य
तिहाव हिस्सा।
०_ अधीनू _ (वि) दूसरे पर आश्रित।
०_ अनकब_ (क्रि.) आवाज से आने का
अंदाजा लगाना।
०_ अनख _ (सर्व.) क्रोध ।
०_ अनखाब _(क्रि) नाराज होना।
०_ अन चिन्हरुआ (वि.) जिससे पूर्व में
परिचय न रहा हो?
०_ अन चिन्हार _(. वि) अपरिचित।
०_ अन जब्बू _ ( वि.) अपरिचित।
बघेली शब्द कोश
( 7)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! बघेली शब्द कोश की यह सातवी किश्त प्रस्तुत है। इसमें अंतिम में एक शब्द (अटइन) आता है। यानी कि जिसका फल टेढ़ा मेंढ़ा अटढ़ा हुआ हो? कहीं _ कहीं इसी को लोग (मरोड़ फली) भी कहते हैं। क्योंकि इसकी कई कलियां आपस में ही लिपट कर एक टेढ़ा मेढ़ा फल का रूप ग्रहण करती हैं।
हमारे सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने हर वनस्पति ,जंगल पहाड़ों ,नदी, नालों का उनके गुण धर्मो के अनुसार नाम कारण कर रखा है। ऐसा लगता है कि उनके नामकरण से कोई वनस्पति नदी,नाले, पहाड़ वंचित ही नहीं रहे। इसी से मै कहा करता हूं कि शब्दों का जन्म पहले बोलियों में हुआ होगा? भाषा में तो उनका परिष्कृत रूप जाता है।
पर आप तो बघेली शब्दों का अवलोकन करें _
०_अंगता - (वि.) पहले। आगे वाला।
०_अगत्ति (वि.) गई गुजरी हुई वस्तु।
०_अगंता - (वि.) आने वाला ।
०_अगन्ती - (वि.) गई गुजरी ।
०_ अंगधर - (वि.) आगे / आगे आने
वाली फसल।
०_अगनई - (सं.स्त्री.) आँगन
० अंगवारे - (वि.) घर के सामने ।
०_अंगबासे - (वि.) घरके सामने की
ओर।
०_अगम दहार - (वि.)बहुत गहरा कुण्ड।
०_अगमानू - (क्रि.) स्वागत करना।
०_ अगमानू ल्याब (क्रि.) आगे बढ़ कर
स्वागत करना।
०_ अंजनहर - (सं.स्त्री.)आँख आंजने
वाली ।
०_अजनास - (वि.) मूर्ख, आलसी,
कामचोर, बेशहूर ।
०_अजनिहा बजनिहा- (सं. पु.)
बजगीर ,बाजा बजाने वाले।
०_अजरा - (वि.) अप्रमाणित, बिना
हिसाब के दी गई राशि ।
०_अजल्याम - (क्रि.वि.) बर्थ ही दोषा
रोपण। झूठा अभियोग
लगाना।
०_अजस - (सर्व.) अपयस ।
०_अजाती - (वि.) जाति से बहिष्कृत।
०_अजार - (सं.) रोग ।
०_अजिआउर - (वि.) दादी का मायका।
०_ अजीरक _ (वि.) भारी भरकम।
०_अजीरन - (क्रि.) अजीर्ण, कब्ज की
शिकायत ,भोजन न पचना।
०_अंजुरी - (सं.स्त्री.) अंजली /गौने की
एक रस्म ।
०_अजुयै से - (उ.) आज ही से
०_अज्जुुर - (वि.) दुर्लभ वस्तु।
०_अंजोर - (वि.) उजाला ।
०_अटइन - (सं. पु.) मरोड़ फली,एक जंगली पौधा जिसके छाल की रस्सी भी बनाई जाती है ।
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बघेली शब्द कोश
( 7)
०_ बाबूलाल दाहिया
मित्रों! बघेली शब्द कोश की यह सातवी किश्त प्रस्तुत है। इसमें अंतिम में एक शब्द (अटइन) आता है। यानी कि जिसका फल टेढ़ा मेंढ़ा अटढ़ा हुआ हो? कहीं _ कहीं इसी को लोग (मरोड़ फली) भी कहते हैं। क्योंकि इसकी कई कलियां आपस में ही लिपट कर एक टेढ़ा मेढ़ा फल का रूप ग्रहण करती हैं।
हमारे सुदूर जंगलों में रहने वाले आदिवासियों ने हर वनस्पति ,जंगल पहाड़ों ,नदी, नालों का उनके गुण धर्मो के अनुसार नाम कारण कर रखा है। ऐसा लगता है कि उनके नामकरण से कोई वनस्पति नदी,नाले, पहाड़ वंचित ही नहीं रहे। इसी से मै कहा करता हूं कि शब्दों का जन्म पहले बोलियों में हुआ होगा? भाषा में तो उनका परिष्कृत रूप जाता है।
पर आप तो बघेली शब्दों का अवलोकन करें _
०_अंगता - (वि.) पहले। आगे वाला।
०_अगत्ति (वि.) गई गुजरी हुई वस्तु।
०_अगंता - (वि.) आने वाला ।
०_अगन्ती - (वि.) गई गुजरी ।
०_ अंगधर - (वि.) आगे / आगे आने
वाली फसल।
०_अगनई - (सं.स्त्री.) आँगन
० अंगवारे - (वि.) घर के सामने ।
०_अंगबासे - (वि.) घरके सामने की
ओर।
०_अगम दहार - (वि.)बहुत गहरा कुण्ड।
०_अगमानू - (क्रि.) स्वागत करना।
०_ अगमानू ल्याब (क्रि.) आगे बढ़ कर
स्वागत करना।
०_ अंजनहर - (सं.स्त्री.)आँख आंजने
वाली ।
०_अजनास - (वि.) मूर्ख, आलसी,
कामचोर, बेशहूर ।
०_अजनिहा बजनिहा- (सं. पु.)
बजगीर ,बाजा बजाने वाले।
०_अजरा - (वि.) अप्रमाणित, बिना
हिसाब के दी गई राशि ।
०_अजल्याम - (क्रि.वि.) बर्थ ही दोषा
रोपण। झूठा अभियोग
लगाना।
०_अजस - (सर्व.) अपयस ।
०_अजाती - (वि.) जाति से बहिष्कृत।
०_अजार - (सं.) रोग ।
०_अजिआउर - (वि.) दादी का मायका।
०_ अजीरक _ (वि.) भारी भरकम।
०_अजीरन - (क्रि.) अजीर्ण, कब्ज की
शिकायत ,भोजन न पचना।
०_अंजुरी - (सं.स्त्री.) अंजली /गौने की
एक रस्म ।
०_अजुयै से - (उ.) आज ही से
०_अज्जुुर - (वि.) दुर्लभ वस्तु।
०_अंजोर - (वि.) उजाला ।
०_अटइन - (सं. पु.) मरोड़ फली,एक जंगली पौधा जिसके छाल की रस्सी भी बनाई जाती है ।
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