या उराव मा जलि रहे घर घर दीप मशाल।।
दीपदान कै लालसा तीरथ का अनुराग।
चित्रकूट कोउ जा रहा कोऊ चला प्रयाग।।
धरमराज कै फड़ सजी चलै जुंआ का खेल।
गाँव गाँव मा पहुंच गय शकुनी बाली बेल।।
रावण के भय से लुका जब से बइठ कुबेर।
तब से धनी गरीब कै अलग अलग ही खेर।।
उल्लू का खीसा भरा छूंछ हंस कै जेब।
या भोपाल कै चाल की दिल्ली का फउरेब।।
जब सागर का मथा गा कढ़ें रतन दस चार।
ओहिन मा धनवंतरी मिलें हमी उपहार।।
पिये हलाहल शिव फिरैं विश्व मा हाहाकार।
अमरित से उनखर किहिन धनवंतरी उपचार।
दुनिया भर कै औषधी रोग बिथा संताप।
धनवंतरी का सब कहैं आयुर्वेद का बाप।।
जिधिना से भ्रृगु जी हनिन श्रीहरिजू का लात।
लछिमी जू रिसिआय के चली गईं गुजरात।।
दियना कहिस अगस्त से दादा राम जोहार।
तुम पी गया समुद्र का हम पी ल्याब अंधिआर
हे लछिमी जू आइये संगे बुद्धि गणेश।
मोरे भारत देस मा दालिद बचै न शेष।।
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